सत्य

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए– जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा सारा –सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा –सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा लोथ की तरह,
स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!

श्री वैद्यनाथ मिश्रा उर्फ़ नागार्जुन बाबा ..... ने अपने व्यक्तित्व में कई आदर्शों को जगह दी और एक नए व्यक्तित्व को जन्म दिया। एक मैथिलि सहित्यकार से हिन्दी साहित्यकार तक का सफर और मार्क्सवाद - लेनिनवाद की विचारधारा से बौद्ध धर्म तक का सफर, साथ ही स्वतंत्रता के बाद इमर्जेंसी में अपना बहुमूल्य योगदान देना ,एक प्रखर पत्रकारिता और फ़िर गरीबी के दंश का शिकार - यही है नागार्जुन का जीवन।

उपर्युक्त कविता "सत्य" कवि के अंतस की पीड़ा को दर्शाता है की कैसे इमर्जेंसी के दौरान सत्य को एक अपाहिज बना दिया गया था ,कैसे सत्य और समाज का सम्बन्ध एक अजनबी सा हो गया था ,कैसे एक क्रन्तिकारी समाज जिसने मात्र २५ वर्ष पूर्व ही सत्य की लाठी से समाज को झकझोरा और एक ऐतिहासिक क्रांति को जन्म दिया वही लाठी आज कमजोर पर गई थी ,वहीं सत्य पंगु हो गया था , सियासत ने कैसे उर्जा के इस दिव्य श्रोत को अवरुद्ध कर दिया था.....!

बाबा नागार्जुन ,इस कविता के माध्यम से समाज को सत्य की मरण शीलता का आभास करवाने की कोशिश करते हैं , उम्मीद है आप आज भी इस कविता की प्रासंगिकता को उतना ही सार्थक पाएंगे जितना की यह इमर्जेंसी के दौरान था।
आज कश्मीर के श्राइन बोर्ड का मुद्दा हो या फ़िर वर्षों पुराना लाइन ऑफ़ कंट्रोल विवाद , आतंकवाद की जड़ें उकेरने की बातें हो या धर्मनिरपेक्षता की पोल खोलने की बात - हर जगह "सत्य" की ये पक्तियां प्रासंगिक लगती हैं -
"सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है "



विचार-मंच पर आपके विचार प्रार्थनीय .......

- सुमित





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